- एक अलसाई सी सुबह
मैं बिस्तर से निकल नहीं पा रहा था उसने मुझे मोहपाश में ऐसे बाँध कर रखा था जैसे चुनावों के वक्त नेता जनता को रखते हैं | मैं किसी ससुराल का जमाई तो नहीं पर कम्बख्त जम्हाई बहुत आ रही थी | मुंडेर पर कबूतरों की गुटरगूं की वजह से मुझे नींद का त्याग करना पड़ा | चादरों पर पड़ी सलवटें गवाह थीं की मैं किस कदर सोया था |
सुबह सुस्त सी थी ऐसा लग रहा था मानो सुबह को सुबह होने की कोई जल्दी न हो | वो खुद को रात के चंगुल से छुड़ाने की कोई हरकत करती नहीं दिख रही थी | शायद वो जात से प्रभावित थी | ठंढ़ दस्तक दे रही थी लेकिन गर्मी दरवाजे नहीं खोल रही थी | दोनों के बीच खींचातान चल रही थी, दोनों एक दूसरे पर हावी होना चाह रहे थे | हालाँकि कुछ सर्द हवाओं ने गर्मी को धमकाना शुरू कर दिया था |
सूर्य देवता काम पर निकल चुके थे पर ओस की ट्रैफिक की वजह से उन्हें धरती पर पहुँचने में देरी हो रही थी | चाँद अपनी नाईट शिफ़्ट ख़तम कर लौट चुका था | उजालों ने तारों का अपहरण कर लिया था मानो जंगलराज हो | शनिवार की वजह से सरकारी बादल सार्वजनिक अवकाश पर थे | कुछ प्राइवेट बादल अनमने ढंग से आसमां को देख और कोस रहे थे कि आज भी काम पर जाना है !
मेरे गांव में गुलाब की खेती नहीं होती मग़र मौसम गुलाबी होने का संकेत दे रहा था | कोरोना के बाद से मुझे AQI चेक करने की आदत हो गई है | फ़ोन में देखा ओह्ह AQI 48 था | गांव में प्रदुषण का गिरा हुआ स्तर देखकर मुझे दिल्ली वालों पर तरस आ गई, खैर
उनींदी आँखों से मैं चाय का बेसब्री से इंतजार कर रहा था, वैसे ही जैसे जनता अच्छे दिनों का कर रही फ़िर मुझे याद आया अरे मैं तो आत्मनिर्भर हूँ | चलें अब कुछ काम किया जाए तभी तो पिछले 10 सालों से आउटर सिग्नल पर खड़ा विश्वगुरु आगे बढ़ेगा !
Bahut hi shandar
ReplyDeleteWelcome 🙂
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